एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
तू भी तो प्यास मेरी ऐ जाम पी लिया कर
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हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
मिरी क़ुर्बतों की ख़ातिर यूँही बे-क़रार होता
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
सरापा तिरा क्या क़यामत नहीं है?
धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा