नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
मैं मिल जाऊँगा मिट्टी में क़लम ज़िंदा रहेगा
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वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से