वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
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धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
गुलों की गर इनायत हो गई तो
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ