सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
आँसुओ तुम भी ज़रा रंग जमाए रखना
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मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
भटका करूँगा कब तक राहों में तेरी आ कर
हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं