मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
यहाँ ज़मीर मिरा बे-नक़ाब रहता है
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इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर