हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
अभी ईमान आधा है अभी लग़्ज़िश अधूरी है
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रक़ाबत क्यूँ है तुम को आसमाँ से
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया