मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
शहर-ए-जानाँ ही तसव्वुर में बसा है साहब
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सरापा तिरा क्या क़यामत नहीं है?
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
रक़ाबत क्यूँ है तुम को आसमाँ से
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
भटका करूँगा कब तक राहों में तेरी आ कर
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून