यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
बे-गुनाही की सज़ा हो जैसे
Ahmad Faraz
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Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
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Habib Jalib
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भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
भटका करूँगा कब तक राहों में तेरी आ कर
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने