इक परिंदा अभी उड़ान में है
तीर हर शख़्स की कमान में है
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बसर होना बहुत दुश्वार सा है
नक़्श पानी पे बना हो जैसे
आँखें खुली हुई हैं तो मंज़र भी आएगा
अगर मस्जिद से वाइज़ आ रहे हैं
ख़ौफ़ बन कर ये ख़याल आता है अक्सर मुझ को
दूर बैठा हुआ तन्हा सब से
मुझ से बच बच के चली है दुनिया
मिरे पड़ोस में ऐसे भी लोग बसते हैं
सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से
नदी के पार उजाला दिखाई देता है
ज़िंदगी की दौड़ में पीछे न था