दिमाग़ दे जो ख़ुदा गुलशन-ए-मोहब्बत में
हर एक गुल से तिरे पैरहन की बू आए
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कहने सुनने से मिरी उन की अदावत हो गई
वस्ल में बिगड़े बने यार के अक्सर गेसू
बस कि थी रोने की आदत वस्ल में भी यार से
अहद के बअ'द लिए बोसे दहन के इतने
चाहता हूँ पहले ख़ुद-बीनी से मौत आए मुझे
फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ
हम ने पाला मुद्दतों पहलू में हम कोई नहीं
नासेह ख़ता मुआफ़ सुनें क्या बहार में
क्या ख़बर मुझ को ख़िज़ाँ क्या चीज़ है कैसी बहार
आस क्या अब तो उमीद-ए-नाउमीदी भी नहीं
कीजिए ऐसा जहाँ पैदा जहाँ कोई न हो