दिल से उठता है सुब्ह-ओ-शाम धुआँ
कोई रहता है इस मकाँ में अभी
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है वाक़िआ कुछ और रिवायत कुछ और है
दिन हो कि रात कुंज-ए-क़फ़स हो कि सेहन-ए-बाग़
गुज़र रहे हैं गुज़रने वाले
ये जितने मसअले हैं मश्ग़ले हैं सब फ़राग़त के
जब भी कोई बात की आँसू ढलके साथ
जहाँ तक गया कारवान-ए-ख़याल
हम से भी गाहे गाहे मुलाक़ात चाहिए
है जो तासीर सी फ़ुग़ाँ में अभी
और कुछ दिन ख़राब हो लीजे
सच के सौदे में न पड़ना कि ख़सारा होगा
किस की जबीं पे हैं ये सितारे अरक़ अरक़
जाए ख़िरद नहीं है कि फ़रज़ाना चाहिए