मैं अंधेरे में हूँ मगर मुझ में
रौशनी ने जगह बना ली है
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साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
विसाल की तीसरी सम्त
उम्र की सारी थकन लाद के घर जाता हूँ
वो इक दिन जाने किस को याद कर के
गिर्या
चराग़ हाथ में हो तो हवा मुसीबत है
पानी की आवाज़
कहो हवा से कि इतनी चराग़-पा न फिरे
किसी तरह से मैं टल जाऊँ अपनी मर्ज़ी से
मेरे चेहरे पे हैं आँखें मिरे सीने में है दिल
दर्द से भरता रहा ज़ात के ख़ाली-पन को
ठीक से याद भी नहीं अब तो