आसमाँ अपने इरादों में मगन है लेकिन
आदमी अपने ख़यालात लिए फिरता है
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तय हो गया है मसअला जब इंतिसाब का
पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
दाख़िल-ए-दफ़्तर
सोचता हूँ कि बुझा दूँ मैं ये कमरे का दिया
रात आई है बलाओं से रिहाई देगी
सिर्फ़ मेहनत क्या है 'अनवर' कामयाबी के लिए
बे-हिर्स-ओ-ग़रज़ क़र्ज़ अदा कीजिए अपना
उन के बग़ैर फ़स्ल-ए-बहाराँ भी बर्गरीज़
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
दर्द ओ दरमाँ
जुदा होगी कसक दिल से न उस की
शिकवा-ए-गर्दिश-ए-हालात लिए फिरता है