आस्तीनों की चमक ने हमें मारा 'अनवर'
हम तो ख़ंजर को भी समझे यद-ए-बैज़ा होगा
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सोचता हूँ कि बुझा दूँ मैं ये कमरे का दिया
दर्द बढ़ता ही रहे ऐसी दवा दे जाओ
आप कराएँ हम से बीमा छोड़ें सब अंदेशों को
अब कहाँ और किसी चीज़ की जा रक्खी है
बस यूँही इक वहम सा है वाक़िआ ऐसा नहीं
सुपर-मैन
मैं ने 'अनवर' इस लिए बाँधी कलाई पर घड़ी
हमें क़रीना-ए-रंजिश कहाँ मयस्सर है
कब तलक यूँ धूप छाँव का तमाशा देखना
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
दाख़िल-ए-दफ़्तर
अगले दिन कुछ ऐसे होंगे