आप करते जो एहतिराम-ए-बुताँ
बुत-कदे ख़ुद ख़ुदा ख़ुदा करते
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हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था
वो नीची निगाहें वो हया याद रहेगी
उन की महफ़िल में हमेशा से यही देखा रिवाज
हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं
न होंगे हम तो ये रंग-ए-गुलिस्ताँ कौन देखेगा
रहते हुए क़रीब जुदा हो गए हो तुम
कुछ अबरुओं पे बल भी हैं ख़ंदा-लबी के साथ
आज़ादी के दीवाने
वक़्त जब करवटें बदलता है
मुद्दतों से कोई पैग़ाम नहीं आता है
ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो