रोज़ आपस में लड़ा करते हैं अर्बाब-ए-ख़िरद
कोई दीवाना उलझता नहीं दीवाने से
Mohsin Naqvi
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Faiz Ahmad Faiz
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तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म ख़त्म की मैं ने
मैं जो रोया उन की आँखों में भी आँसू आ गए
लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद
इश्क़ मुकम्मल ख़्वाब-ए-परेशाँ
दौर-ए-हाज़िर हो गया है इस क़दर कम-आश्ना
वो नीची निगाहें वो हया याद रहेगी
ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो
उम्र गुज़री है इल्तिजा करते
हर साँस में ख़ुद अपने न होने का गुमाँ था
तलख़ाबा-ए-ग़म ख़ंदा-जबीं हो के पिए जा
वक़्त जब करवटें बदलता है