मोहब्बत रही चार दिन ज़िंदगी में
रहा चार दिन का असर ज़िंदगी भर
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आवारा हूँ रैन-बसेरा कोई नहीं मेरा
गो कठिन है तय करना उम्र का सफ़र तन्हा
सभी ज़िंदगी के मज़े लूटते हैं
मुस्कुरा कर देख लेते हो मुझे
सामने आ कर वो क्या रहने लगा
उस बज़्म में क्या कोई सुने राय हमारी
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती
इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए
अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ
जो जल उठी है शबिस्ताँ में याद सी क्या है
ज़िंदगी की ज़रूरतों का यहाँ