अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ
अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ
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सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
निज़ाम-ए-ज़र में किसी और काम का क्या हो
ये ख़ुद को देखते रहने की है जो ख़ू मुझ में
कड़ा है दिन बड़ी है रात जब से तुम नहीं आए
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती
कट चुकी थी ये नज़र सब से बहुत दिन पहले
मैं अपने-आप से पीछा छुड़ा के
हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
हम बुलाते वो तशरीफ़ लाते रहे
और न दर-ब-दर फिरा और न आज़मा मुझे
कोई ज़ंजीर नहीं तार-ए-नज़र से मज़बूत
उन की सूरत हमें आई थी पसंद आँखों से