दिए जलाए उम्मीदों ने दिल के गिर्द बहुत
किसी तरफ़ से न इस घर में रौशनी आई
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15 अगस्त (1949)
मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं
आग ही आग है गुलशन ये कोई क्या जाने
साक़ी मिरी ख़मोश-मिज़ाजी की लाज रख
जश्न-ए-आज़ादी
इश्क़-ए-बुताँ का ले के सहारा कभी कभी
खिंच के महबूब के दामन की तरफ़
इक रौशनी सी दिल में थी वो भी नहीं रही
है देखने वालों को सँभलने का इशारा
तिरी दुनिया को ऐ वाइज़ मिरी दुनिया से क्या निस्बत
वो सहरा जिस में कट जाते हैं दिन याद-ए-बहाराँ से
तरब के मख़मसे ग़म के झमेले