है देखने वालों को सँभलने का इशारा
थोड़ी सी नक़ाब आज वो सरकाए हुए हैं
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इस इंतिहा-ए-तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
रहगुज़र रहगुज़र से पूछ लिया
तौबा तौबा ये बला-ख़ेज़ जवानी तौबा
मोहब्बत सोज़ भी है साज़ भी है
चमन में कौन है पुरसान-ए-हाल शबनम का
वो ले के हौसला-ए-अज़्म-ए-बे-पनाह चले
जितनी वो मिरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ
बस इसी धुन में रहा मर के मिलेगी जन्नत
ज़ख़्म-ए-दिल भी दिखा के देख लिया
15 अगस्त (1949)
वो सहरा जिस में कट जाते हैं दिन याद-ए-बहाराँ से
सब देखने वाले उन्हें ग़श खाए हुए हैं