अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
तो और थोड़े दिनों ये लिबास चल जाता
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हुज़ूर-ए-ग़ैर तुम उश्शाक़ की तहक़ीर करते हो
मय जो दी ग़ैर को साक़ी ने कराहत देखो
गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर
तासीर जज़्ब मस्तों की हर हर ग़ज़ल में है
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे