अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
तो और थोड़े दिनों ये लिबास चल जाता
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जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
गर्दिश में साथ उन आँखों का कोई न दे सका
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
ये बारीक उन की कमर हो गई
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
हम तो हों दिल से दूर रहें पास और लोग
मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़