अजब कशिश है तिरे होने या न होने में
गुमाँ ने मुझ को हक़ीक़त से बाँध रक्खा है
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तिरे ख़याल से फिर आँख मेरी पुर-नम है
किस के सवाल पर ये दिल रोता है सारी सारी रात
फैलती जा रही है ये दुनिया
कोई नहीं है इंतिज़ार सुब्ह-ए-विसाल के सिवा
किसी सूरत अगर इज़हार की सूरत निकल आए
कोई तो मोजज़ा ऐसा भी हो अपनी मोहब्बत में
जब मैं उस आदमी से दूर हुआ
ख़ला का मसअला ही मुख़्तलिफ़ है
सुरूर-ए-इश्क़ ने उल्फ़त से बाँध रक्खा है
सभी ताबीर उस की लिख रहे हैं