रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
वो भी आख़िर मेरे जैसा हो गया होना ही था
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तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
इस सफ़र में नीम-जाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली