रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ ए'तिराफ़ था
Wasi Shah
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Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
मेरे उस के दरमियाँ ये फ़ासला अपनी जगह है
मसअला ये तो नहीं कि सिन-रसीदा कौन था
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम
न जाने कब कोई आ कर मिरी तकमील कर जाए
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझे