शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वर्ना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था
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मेरे उस के दरमियाँ ये फ़ासला अपनी जगह है
ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
हम तह-ए-दरिया तिलिस्मी बस्तियाँ गिनते रहे
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ