मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली
और वो भी अपने घर का हो गया होना ही था
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सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझे
यहाँ तो हर घड़ी कोह-ए-निदा की ज़द में रहते हैं
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
मेरे उस के दरमियाँ ये फ़ासला अपनी जगह है
ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
मसअला ये तो नहीं कि सिन-रसीदा कौन था
शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं
इस सफ़र में नीम-जाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं