वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं
उन्ही बिछड़े परिंदों को शजर वापस बुलाता है
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अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
इस सफ़र में नीम-जाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था