ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
सच तो ये है बे-ज़बाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
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रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
मसअला ये तो नहीं कि सिन-रसीदा कौन था
वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं
यहाँ तो हर घड़ी कोह-ए-निदा की ज़द में रहते हैं
हम तह-ए-दरिया तिलिस्मी बस्तियाँ गिनते रहे
मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली