ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
ख़ुद से वाबस्ता यहाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
Gulzar
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Rahat Indori
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(687) Peoples Rate This
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
हम तह-ए-दरिया तिलिस्मी बस्तियाँ गिनते रहे
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
न जाने कब कोई आ कर मिरी तकमील कर जाए
सुकूत-ए-शब के हाथों सोंप कर वापस बुलाता है
मेरे उस के दरमियाँ ये फ़ासला अपनी जगह है
कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा
तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू