बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना
बस इस तक़्सीर पर अपने मुक़द्दर में है मर जाना
तबस्सुम को तबस्सुम क्यूँ नज़र को क्यूँ नज़र जाना
ख़िरद वालों से हुस्न ओ इश्क़ की तन्क़ीद क्या होगी
न अफ़्सून-ए-निगह समझा न अंदाज़-ए-नज़र जाना
मय-ए-गुलफ़ाम भी है साज़-ए-इशरत भी है साक़ी भी
बहुत मुश्किल है आशोब-ए-हक़ीक़त से गुज़र जाना
ग़म-ए-दौराँ में गुज़री जिस क़दर गुज़री जहाँ गुज़री
और इस पर लुत्फ़ ये है ज़िंदगी को मुख़्तसर जाना
(820) Peoples Rate This