लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ

लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ

मैं अपने वजूद की सज़ा हूँ

ज़ख़्मों के गुलाब खिल रहे हैं

ख़ुश्बू के हुजूम में खड़ा हूँ

इस दश्त-ए-तलब में एक मैं भी

सदियों की थकी हुई सदा हूँ

इस शहर-ए-तरब के शोर-ओ-ग़ुल में

तस्वीर-ए-सुकूत बन गया हूँ

बेनाम-ओ-नुमूद ज़िंदगी का

इक बोझ उठाए फिर रहा हूँ

शायद न मिले मुझे रिहाई

यादों का असीर हो गया हूँ

इक ऐसा चमन है जिस की ख़ुश्बू

साँसों में बसाए फिर रहा हूँ

इक ऐसी गली है जिस की ख़ातिर

दरमाँदा कू-ब-कू रहा हूँ

इक ऐसी ज़मीं है जिस को छू कर

तक़्दीस-ए-हरम से आश्ना हूँ

ऐ मुझ को फ़रेब देने वाले

मैं तुझ पे यक़ीन कर चुका हूँ

मैं तेरे क़रीब आते आते

कुछ और भी दूर हो गया हूँ

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