मैं उसे सुब्ह न जानूँ जो तिरे संग नहीं
मैं उसे शाम न मानूँ कि जो तेरे बिन है
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सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात
पहुँचा दिया उमीद को तूफ़ान-ए-यास तक
यहीं कहीं पे अदू ने पड़ाव डाला था
कभी कभार भी कब साएबाँ किसी ने दिया
न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए
यही बहुत है कि अहबाब पूछ लेते हैं
अगर यक़ीन न रखते गुमान तो रखते
चुप-चाप हब्स-ए-वक़्त के पिंजरे में मर गया
ख़ुद को किसी की राहगुज़र किस लिए करें
यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ
मैं तुझे भूलना चाहूँ भी तो ना-मुम्किन है
कितने मअनी रखता है ज़रा ग़ौर तो कर