ये कच्चे सेब चबाने में इतने सहल नहीं
हमारा सब्र न करना भी एक हिम्मत है
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किसी बदन की सयाहत निढाल करती है
बता रहा है झटकना तिरी कलाई का
उस लब की ख़ामुशी के सबब टूटता हूँ मैं
हाए वो भीगा रेशमी पैकर
ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
वैसे तो ईमान है मेरा उन बाँहों की गुंजाइश पर
मंज़र-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है दम-ए-रुख़्सत-ए-ख़्वाब
ये ख़मोशी मिरी ख़मोशी है
दोश देते रहे बे-कार ही तुग़्यानी को
अच्छे-ख़ासे लोगों पर भी वक़्त इक ऐसा आ जाता है