दिल की आलूदगी-ए-ज़ख़्म बढ़ी जाती है
साँस लेता हूँ तो अब ख़ून की बू आती है
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जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
'मीर'
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
एक ही ख़त में है क्या हाल जो मज़कूर नहीं
दिल का छाला फूटा होता
कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की
हमेशा से मिज़ाज-ए-हुस्न में दिक़्क़त-पसंदी है
तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे