मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
ये माना हम जिए लेकिन जिए क्यूँ
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न हुई हम से शब बसर न हुई
ज़बान दिल की हक़ीक़त को क्या बयाँ करती
दिल की आलूदगी-ए-ज़ख़्म बढ़ी जाती है
इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
मेरे रोने पे ये हँसी कैसी
बचपने की याद
क्यूँ न हो शौक़ तिरे दर पे जबीं-साई का
दुनिया का ख़ून दौर-ए-मोहब्बत में है सफ़ेद
ये तेरी आरज़ू में बढ़ी वुसअत-ए-नज़र
हादसात-ए-दहर में वाबस्ता-ए-अर्बाब-ए-दर्द
दुनिया को वलवला दिल-ए-नाशाद से हुआ
जीते हैं कैसे ऐसी मिसालों को देखिए