तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
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मोहब्बत लफ़्ज़ तो सादा सा है लेकिन 'अज़ीज़' इस को
तुम्हारी ज़ात से मंसूब है दीवानगी मेरी
कैसे मुमकिन है कि हम दोनों बिछड़ जाएँगे
दिल में अब कुछ भी नहीं उन की मोहब्बत के सिवा
आख़िर-ए-शब वो तेरी अंगड़ाई
सोज़िश-ए-ग़म के सिवा काहिश-ए-फ़ुर्क़त के सिवा
जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने
ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-हस्ती की क़सम
इक हम कि उन के वास्ते महव-ए-फ़ुग़ाँ रहे
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो