तुम्हारी ज़ात से मंसूब है दीवानगी मेरी
तुम्हीं से अब मिरी दीवानगी देखी नहीं जाती
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तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
इक वक़्त था कि दिल को सुकूँ की तलाश थी
ये हम पर लुत्फ़ कैसा ये करम क्या
उस ने मिरे मरने के लिए आज दुआ की
दिल में अब कुछ भी नहीं उन की मोहब्बत के सिवा
मुझ से ये पूछ रहे हैं मिरे अहबाब 'अज़ीज़'
ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ
मोहतसिब आओ चलें आज तो मय-ख़ाने में
तिरी तलाश में निकले हैं तेरे दीवाने
आख़िर-ए-शब वो तेरी अंगड़ाई
जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो