न हाथ सूख के झड़ते हैं जिस्म से अपने
न शाख़ कोई समर-बार अपनी होती है
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तुम मोहब्बत का उसे नाम भी दे लो लेकिन
कमाँ न तीर न तलवार अपनी होती है
क़ुबूल होती हुई बद-दुआ से डरते हैं
मुझ को पहचान तू ऐ वक़्त मैं वो हूँ जो फ़क़त
एड़ियाँ मार के ज़ख़्मी भी हुए लोग मगर
ये ख़ज़ाने का कोई साँप बना होता है
हार को जीत के इम्कान से बाँधे हुए रख
ज़रा सी देर में कश्कोल भरने वाला था
दूसरा रुख़ नहीं जिस का उसी तस्वीर का है
माँगना ख़्वाहिश-ए-दीदार से आगे क्या है
सफ़र के ब'अद भी सफ़र का एहतिमाम कर रहा हूँ मैं
तू आ गया है तो अब याद भी नहीं मुझ को