मुझ को पहचान तू ऐ वक़्त मैं वो हूँ जो फ़क़त
एक ग़लती के लिए अर्श-ए-बरीं से निकला
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दुनिया के लिए ज़हर न खालें कोई हम भी
हारे हुए लोगों की कहानी की तरह हैं
समझ के रस्ता इधर से गुज़रने वालों ने
तू बात नहीं सुनता यही हल है फिर इस का
ये ख़ज़ाने का कोई साँप बना होता है
कमाँ न तीर न तलवार अपनी होती है
ज़रा सी देर में कश्कोल भरने वाला था
चुपके से गुज़रते हैं ख़बर भी नहीं होती
हार को जीत के इम्कान से बाँधे हुए रख
चंद क़दमों से ज़ियादा नहीं चलने पाते
एड़ियाँ मार के ज़ख़्मी भी हुए लोग मगर