कोई शय दिल को बहलाती नहीं है
परेशानी की रुत जाती नहीं है
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पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से
क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
समुंदर का तमाशा कर रहा हूँ
वही पत्थर लगा है मेरे सर पर
रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं
जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं