दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं
साया-ए-दर भी नज़र आए तो घर लगता है
Habib Jalib
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Javed Akhtar
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Jaun Eliya
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Gulzar
Parveen Shakir
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रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
वही पत्थर लगा है मेरे सर पर
उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
तिश्नगी-ए-लब पे हम अक्स-ए-आब लिक्खेंगे
हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं
समुंदर का तमाशा कर रहा हूँ
पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से
क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम