वही पत्थर लगा है मेरे सर पर
अज़ल से जिस को सज्दे कर रहा हूँ
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हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं
कोई शय दिल को बहलाती नहीं है
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
पड़े हैं राह में जो लोग बे-सबब कब से
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
उसी के ज़ुल्म से मैं हालत-ए-पनाह में था
घर भी वीराना लगे ताज़ा हवाओं के बग़ैर
दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए