घर भी वीराना लगे ताज़ा हवाओं के बग़ैर
बाद-ए-ख़ुश-रंग चले दश्त भी घर लगता है
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वही पत्थर लगा है मेरे सर पर
कोई शय दिल को बहलाती नहीं है
अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है
क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं