अलविदा'अ

अलविदा'अ

कैसे माह-ओ-साल गुज़रे

अब न कुछ भी याद है

सिर्फ़ हैं धुँदले नुक़ूश

या बसारत की कमी है

कुछ नज़र आता नहीं

बस किताबों और फिल्मों में रही

इक बसीरत की तलाश

कुछ न कुछ रोटी की भी थी जुस्तुजू

जाने किस मंज़िल की थी वो आरज़ू

बे-सबब लोगों से याराना रहा

और फिर तन्हा रहा बरसों तलक

सब थे क़ैदी अपने अपने जाल के

तमन्नाओं की दलदल में पड़े

किस में हिम्मत थी कि बदले ज़िंदगानी के पुराने ख़ोल को

हम से सरकश को दिया करते थे नाम

और हँस कर ख़ुश हुआ करते सारे अजनबी

कौन समझाए कि हम महकूम हैं मज़लूम हैं

बेबसी कैसे मुक़द्दर बन गई

बोलेगा कौन

ख़ौफ़ ऐसा है कि कोई शख़्स कुछ कहता नहीं

जाने किस तूफ़ान के सब मुंतज़िर हैं

बुत बने

कैसे चिल्लाऊँ कि अपना हम-नवा कोई नहीं

अलविदा'अ ख़ुद अपने साए को मगर

कहना पड़ा

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