बेदारी का इक दौर नया आता है
वहशत का भी अंदाज़ बदल जाता है
अब अहल-ए-ख़िरद ख़ुश हैं कि दीवाना भी
महफ़िल में नई शम्अ जला जाता है
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फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो न सकें
ख़ामुशी
हर लहज़ा धड़कता है दिल-ए-ख़ाना-ख़राब
और कोई जो सुने ख़ून के आँसू रोए
मेरे सनम-कदे में कई और बुत भी हैं
बुझी बुझी है सदा-ए-नग़्मा कहीं कहीं हैं रबाब रौशन
माना कि हर इक तरह के हाएल ग़म हैं
चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं
हर एक हक़ीक़त का फ़साना होगा
दुश्मन-ए-जाँ कोई बना ही नहीं
बहुत है एक नज़र
धरती का बोझ