अशआर में ढलता है मिरा सोज़-ए-दरूँ
अफ़्कार में मिलता है हक़ीक़त का फ़ुसूँ
ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं मंज़ूर मुझे
हालात से लड़ता है अभी मेरा जुनूँ
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हर एक हक़ीक़त का फ़साना होगा
हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
निरवान
ख़बर सुनेगा मिरी मौत की तो ख़ुश होगा
टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म
लरज़ लरज़ के न टूटें तो वो सितारे क्या
फिर अपनी तमन्नाओं का धागा टूटा
गोडो
जो ज़माने का हम-ज़बाँ न रहा
ख़ूँ हो के टपकती है तमन्ना देखो
गूँजता शहरों में तन्हाई का सन्नाटा तो है