माना कि हर इक तरह के हाएल ग़म हैं
आ जाओ कि फिर बज़्म में तन्हा हम हैं
मिलते हैं कहाँ ऐसे मोहब्बत वाले
इस दौर में दीवाने बहुत ही कम हैं
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गोडो
टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म
ख़ामोशी पे इल्ज़ाम लगाया न करो
समझा हुआ जब कोई इशारा न मिले
जज़्बा हर इक अंदाम में ढल सकता है
मेरा जनम दिन
इश्क़ की सारी बातें ऐ दिल पागल-पन की बातें हैं
फिर अपनी तमन्नाओं का धागा टूटा
सादा काग़ज़ पे कोई नाम कभी लिख लेना!
क्या क्या नहीं किया मगर उन पर असर नहीं
मरहूम तमन्नाओं को क्या याद करें
अश्क मेरे हैं मगर दीदा-ए-नम है उस का