ऐसी बेगानगी नहीं देखी
अब किसी का कोई यहाँ न रहा
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मेरा जनम दिन
चले तो जाते हो रूठे हुए मगर सुन लो
एक तूफ़ाँ की तरह कब से किनारा-कश है
इक ख़्वाब की ताबीर हक़ीक़त ही न हो
सरमाए की अज़्मत का निशाँ देख लिया
हमारे ब'अद
जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं
गूँजता शहरों में तन्हाई का सन्नाटा तो है
हर बात यहाँ राज़ बनी जाती है
ज़र्रे का राज़ मेहर को समझाना चाहिए
दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था
लहरों का आतिश-फ़िशाँ