सरमाए की अज़्मत का निशाँ देख लिया
देखा न कभी था वो समाँ देख लिया
आँखों में चमकती हुई जन्नत देखी
सीने में जहन्नम है निहाँ देख लिया
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अब जज़्बा-ए-वहशत की क़सम मत खाओ
चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ बुझा के बैठे हैं
ख़ामोशी पे इल्ज़ाम लगाया न करो
बेदारी का इक दौर नया आता है
ऐसी बेगानगी नहीं देखी
बेताबी में हर तरह से बर्बाद रहा
टूटे शीशे की आख़िरी नज़्म
दश्त-ए-वफ़ा में ठोकरें खाने का शौक़ था
मेरा जनम दिन
जज़्बा हर इक अंदाम में ढल सकता है
रेत और दर्द
ये रात